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कविता

गाज़ीपुर

श्रीप्रकाश शुक्ल


यह एक ऐसा शहर है जहाँ लोग धीरे-धीरे आते हैं
धीरे-धीरे रहते हैं
और धीरे-धीरे रहने लगते हैं

यहाँ आने वाला हर व्यक्ति कुछ सहमा-सहमा रहता है
कुछ कुछ अलग थलग रहता है
जैसे उमस-भरी गर्मी में दूसरे का स्पर्श
लेकिन धीरे-धीरे ससुराल गई महिला की तरह
जीना सीख लेता है

यहाँ रहने वाला हर व्यक्ति यहाँ रहने के लिए नहीं आया
उसके चारों ओर पड़ा रहता था हमेशा ही एक उदास घेरा
जिसमें उसने कभी पवहारी बाबा में विवेकानंद को खोजा
तो कभी कार्नवालिस के मकबरे पर बैठते
सोचता रहा इतिहास के बारे में

यह जैसे-जैसे रहता गया

(या कि रहता गया होगा)
अच्छा लगता गया गंगौली और धामूपुर
अच्छे लगते रहे टैगोर
जो कभी गुलाबों के इस शहर में बीमारी अवस्था में आए थे

वह इन्हीं गुलाबी जगहों में टटोलता रहा कुछ सुंदर सपने
जो उसके बहुत डरे मन के भीतर से आए थे
और जिसे सोचते उसने जाना
कि दुनिया की सारी सुंदर जगहें
डरे हुए लोगों द्वारा ही बसाई गई हैं!

जीवन जैसा चल रहा था
इन्हीं डरी जगहों में रहना था निडर
नथुनों में भरनी थी नई माटी की महक
नई उम्मीदें और नए सपने

इन्हीं सपनों के बीच उसने जाना अचानक
कि उसका भी एक मकान है
उसके भी बच्चे हैं जिसमें चहलकदमी करते
और उसकी कुछ अतृप्त इच्छाएँ हैं

जिन्हें अब यहीं से पूरा होना है!

अपनी इन्ही इच्छाओं में उसने गढ़ी एक संस्कृति
दिया एक शहर का नाम!

वह गाज़ीपुर हो
या फिर हाज़ीपुर।
('बोली बात' काव्य-संग्रह से)


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